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जातिवाद : इस गांव में पहली बार चप्पल पहनकर गलियों में चले दलित, मनुवाद को पैरों से कुचला !

दलितों ने पहली बार चप्पल पहनकर उन गलियों में कदम रखा जहां उन्हें नंगे पैर चलने के लिए मज़बूर किया जाता था। 

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तमिलनाडु में जातिवाद का अंत कब होगा ?

ऐसे वक्त में जब लोग अयोध्या में राममंदिर के उद्घाटन के लिए दौड़े चले जा रहे हैं, दलितों को ज़िंदगी में पहली बार चप्पल पहनकर चलने का मौका मिला है। खबर सोशल जस्टिस का द्रविड़ मॉडल माने जाने वाले तमिलनाडु से है। दलितों ने पहली बार चप्पल पहनकर उन गलियों में कदम रखा जहां उन्हें नंगे पैर चलने के लिए मज़बूर किया जाता था। 

तमिलनाडु के तिरुप्पुर जिले का मामला 

बीते रविवार को तमिलनाडु के तिरुप्पुर जिले के 60 दलितों ने वो कर दिखाया, जो आज तक कोई नहीं कर सका। इन 60 दलितों ने पैरों में चप्पल और जूते पहने और उस गली से निकले जहां उनके नंगे पैर चलने का विधान लागू था। राजावुर गाँव में जो हुआ, वो कोई छोटी बात नहीं है। जब देश आज़ादी का अमृतकाल मना रहा है, तब हमारे इसी देश के दलितों को चप्पल पहनकर चलने जैसे मामूली से अधिकार के लिए भी अपनी जान की बाज़ी लगानी पड़ रही है। इसलिए मेरी नज़र में 60 दलितों का चप्पल पहनना बहुत बड़ी बात है क्योंकि ये आत्मसम्मान का मामला है। आप जिन्हें इंसान तक नहीं मानते, वो संविधान लागू होने के 74 साल बाद भी अपने मानव अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है। 

ओबीसी जातियां ने बनाया था मनु का विधान

आपको जानकर हैरानी होगी कि दलितों को चप्पल पहनकर चलने से रोकने वाले ज़्यादातर लोग ओबीसी जातियों के हैं। राजापुर गाँव में क़ंबला नैकन स्ट्रीट है जो करीब 300 मीटर लंबी है और इसके आसपास नायकर और गौंडार जैसी ओबीसी जातियाँ हैं। रामास्वामी पेरियार नायकर जैसे महान शख़्स आज होते तो बहुत दुखी होते। वो पिछड़ों को समझाते रहे कि हिंदुत्व के भ्रमजाल से बाहर निकलो लेकिन ऐसे लोगों ने उनकी बात नहीं मानी। तमिलनाडु में नायकर और गौंडार जैसी ओबीसी जातियाँ दलितों के साथ छुआ-छूत करती हैं और ये तस्वीरें इस बात का सबूत है कि सामाजिक न्याय की ज़मीन तमिलनाडु में जाति के मामले में सबकुछ ठीक नहीं है। 

धमकी देते थे और हमले में भी करते थे – स्थानीय 

जिस जाति के लोगों ने गली में चलने का साहस दिखाया, वो अरुणथथियार जाति से हैं जो कि SC में आते हैं। न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने एक गांव वाले के हवाले से छापा है कि ‘अरुणथथियार जााति के लोगों को उस गली में चप्पल या स्लीपर पहनकर चलने की मनाही थी। दलितों को जान से मारने की धमकियां तक दी गई थी औैर उनपर हमले भी हुए थे। उच्च जातियों की महिलाओं ने भी धमकी दी थी कि अगर दलित यहां से चप्पल पहनकर गुज़रे तो देवता दलितों को मौत की सज़ा देंगे। हम दशकों से इस शोषण और ज़िल्लत के साथ जी रहे थे। कुछ हफ्ते पहले हमने इलाके के दलित संगठनों के सामने अपनी समस्या रखी’

झूठी कहानी गढ़ दलितों को चप्पल पहनने से रोका 

दलित संगठनों ने जो हिम्मत दिखाई है, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए। लेकिन क्या आप जानते हैं कि दलितों को कैसे एक झूठी कहानी गढ़कर दशकों तक इस तरह अपमानित किया गया। एक स्थानीय शख़्स बताता है कि ‘आज़ादी के बाद जब छुआ-छूत को ख़त्म कर दिया गया था तो प्रभुत्वशाली जातियों ने दलितों के साथ इस अमानवीय प्रथा को जारी रखने के लिए ये कहानी बना दी कि इस गली में एक शापित गुड़िया को दबाया गया है और अगर दलित उसके ऊपर से चप्पल पहनकर कर निकले तो तीन महीने के भीतर उनकी मौत हो जाएगी। कुछ दलितों ने उनकी बातों पर यक़ीन कर लिया और चप्पल उतारकर उस गली से गुज़रने लगे और इस तरह से ये प्रथा तभी से चलती आ रही है’

अब आप अंदाज़ा लगाइये कि कैसे दलितों को अंधविश्वास और पाखंड के सहारे गुलाम बनाए रखने की साज़िशें रची जाती हैं। राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले कहते थे कि हमें ब्राह्मणवादियों की इन साज़िशों को समझना चाहिए और उनके झाँसे में नहीं आना चाहिए। आज भी हम दलितों को ये बात समझाते हैं कि धर्म और पाखंड के जाल से बाहर निकलो और शिक्षा और विज्ञान का रास्ता अपनाओ। शिक्षित बनोगे तो फिर संगठित होकर आप ऐसे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ सकोगे।

जब गाँव वालों ने तमिलनाडु छुआ-छूत मिटाओ मोर्चे के सामने अपनी बात रखी तो वो अपनी टीम के साथ पहुँचे और ललकार कर उस गली से गुज़रे जहां कथित ऊँची ओबीसी जातियों के लोग अपनी खिड़कियों से झांककर अपनी लाल आँखों से उन्हें डराने की कोशिश कर रहे थे। तमिलनाडु छुआ-छूत मिटाओ मोर्चे के साथियों ने कमाल का काम किया है लेकिन अभी भी गांव के दलित डर के साये में जी रहे हैं। उन्हें डर है कि ये जातिवादी उनपर कहीं हमला ना कर दें। इसलिए ज़रूरी है कि राजावुर गाँव की अरुणथथियार जाति लोग भी संगठित हों और ऐसे जातिवादियों का सामना करें। किसी के साथ भी जाति भेद करना या छुआ-छूत करना, ग़ैरक़ानूनी है। ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ SC-ST एक्ट के तहत केस दर्ज़ हो सकता है इसलिए कानून का सहारा भी लेना चाहिए। 

तमिलनाडु के द्रविड़ मॉडल पर उठे गंभीर सवाल 

तमिलनाडु में हमेशा से ही ओबीसी जातियों की सरकार रही है और तमिलनाडु के सामाजिक न्याय मॉडल की हमेशा तारीफ भी की जाती है लेकिन ये सोशल जस्टिस मॉडल भी जाति की बीमारी का इलाज करने में पूरी तरह से कामयाब नहीं हो सका है। हमने तमिलनाडु में जातिवाद पर एक चौंकाने वाली रिपोर्ट पर एक स्पेशल वीडियो रिलीज़ किया था जिसमें हमने बताया था कि रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु के करीब 30 % स्कूलों में अभी भी दलित छात्रों के साथ किसी ना किसी तरह का जातिवाद होता है।

तमिलनाडु छुआछूत मिटाओ मोर्चा की ओेर से किए गए रिसर्च में ये चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक इन स्कूलों में दलित छात्रों से टॉयलेट साफ कराने जैसे अपराध से लेकर जातीय भेदभाव, मिड-डे मील सर्व करते वक्त अलग लाइन में बैठाना, खेलने और लैब में प्रैक्टिस के लिए समय देने में भेदभाव जैसे अपराध खुलेआम होते हैं। कुछ स्कूलों में तो ये भी सामने आया कि दलित छात्रों को अपनी पहचान के लिए कलाई में किसी तरह का धागा या गले में चेन वगैरह भी पहननी पड़ती है ताकि उन्हें दूर से ही देखकर हिंदू जातियां समझ जाएं कि वो दलित हैं। 

क्या कर रही है स्टालिन सरकार ?

तमिलनाडु में जातिवाद पर ऐसी रिसर्च रिपोर्ट आना और तमिलनाडु में ही आज़ादी के बाद पहली बार राजावुर गांव में चप्पल पहनकर कर चलने का मामला इस बात का सबूत है कि दक्षिण भारत में भले ही सवर्णों की आबादी कम हो लेकिन वहां की ओबीसी जातियां भी जातिवाद करने में पीछे नहीं हैं। ऐसे खबरों ने तमिलनाडु की स्टालिन सरकार पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं कि आखिर क्यों तमिलनाडु की सरकार छुआछूत और जातिवाद पर नकेल लगाने में क्यों सफल नहीं हो रही? पेरियार की ज़मीन तमिलनाडु में जिस द्रविड़ मॉडल की हम मिसाल देते हैं, क्या वहां भी जाति की बीमारी का कोई पक्का इलाज नहीं है? सवाल हमारे महान देश भारत के लोगों से भी है आखिर आप अपनी ये सड़ी हुई मानसिकता कब छोड़ोगे? इस बारे में आपकी क्या राय है ? 

 

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