देश जब दलित बेटी मनीषा के साथ हुई दरिंदगी के लिए इंसाफ मांग रहा था, उस समय बलरामपुर में एक और बेटी सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हो रही थी। जिसमें उसके दोनों पैर और कमर तोड़ दी गई है। मुंह बंद करने के लिए घातक इंजेक्शन ठूंस दिया और फिर हत्या कर दी गई। हाथरस में हुई घटना में वीभत्सता की सारी हदें पार कर दी गई। लड़की की पिटाई कर रीढ़ की हड्डी तोड़ दी, उसकी जीभ भी काट दी थी। जिस भाव को सोच कर ही रूह कांप जाती हो, ऐसे भाव को यह बेटियां इस कुंठित होते समाज में हर रोज़ झेल रही हैं। अंदाज़ा लगाइए कि दोनों खबरों में ज्यादा नृशंस कौन सी है ? बलात्कार की घटनाओं में महिलाओं के साथ वीभत्सता हर बार पहले से ज्यादा दिखाई पड़ती है, और यह क्रूरता तब और भी बढ़ जाती है, जब महिला दलित समुदाय से हो।
निर्भया कांड हो या यूपी का उन्नाव, मिर्चपुर, हैदराबाद कांड, कठुआ का दर्दनाक हादसा हो या हाथरस, बलरामपुर की घटना और अब आज़मगढ़ इन सभी मामलों में हर बार आरोपियों की ऐसी घृणित मानसिकता झलकती है, जिससे लगता है कि मानों उन्हें सुकून मिलता हो पीड़िता को दर्द पहुंचाने में। हर बार पहले से ज्यादा हैवानियत भरी वारदातों को अंजाम दिया जाता है। जैसे कहीं कोई प्रतिस्पर्धा चल रही हो। जैसे कोई उदाहरण पेश करना हो कि हम ज्यादा बेख़ौफ़ और दरिंदे हैं, हमारा कोई क्या बिगाड़ लेगा ? बल्कि हमारी पैरवी तो खुद सत्ता और प्रशासन करेगा। क्या पिछली कुछ घटनाओं में ऐसा ही देखने को नहीं मिला ? क्या ऐसा नहीं लगता ऐसा करने वालों को और इनका साथ देने वालों को समाज की व्यवस्थाओं में अपना वर्चस्व और स्वामित्व दिखाई देता है। यह वही तबक़ा है, जो यह मान चुका है कि इस देश में सामंतवादी व्यवस्थाओं को ऐसे ही बने रहना चाहिए। ऐसे ही हमारा देश वर्ण व्यवस्थाओं में बंधा रहना चाहिए और दलितों, शोषितों, वंचितों पर अत्याचार होते रहना चाहिए। जिस देश में बेटियों को देवी का दर्जा दिया जाता हो, जहाँ की सांझी-संस्कृति और विरासत विश्वपटल पर एक अलग छाप छोड़ती हो, सरकार बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा देती हो, उस देश में बेटियों के साथ हैवानियत की सभी हदें पार करती ख़बरें समाज, सरकार और सिस्टम की नाकामियों का जीता जागता उदाहरण है।
हाथरस और बलरामपुर में दलित बेटियों के साथ जिस बर्बरता के साथ दुष्कर्म किया गया, उन्हें इतनी अमानवीय यातनाएं दी गई कि अंततः दोनों ने दम तोड़ दिया. सारा समाज इतना आत्मकेन्द्रित हो गया है कि ऐसी घटनाओं पर तब तक कोई हलचल नहीं मचती, जब तक कि वो सत्ता, प्रशासन या ऐसे ही किसी प्रभावशाली तबक़े को प्रभावित न करे। दुःखद है कि यह घटनाएं किसी मेनस्ट्रीम मीडिया को खबर नहीं लगतीं और न ही किसी डिबेट का हिस्सा बन पाती हैं। यूपी में जातिवाद अपने चरम पर है, छुआछूत और अस्पृश्यता की वारदातों से पटा पड़ा है। लेकिन बलात्कार करने पर जाति बीच में नहीं आती। हाँ, जब इन बच्चियों के लिए इन्साफ की बात आती है तो जाति देखकर क्रिया-प्रतिक्रिया तय की जाती है। आखिर क्या कारण है कि कानून का डर समाप्त हो गया है ? और आखिर क्या कारण है कि सत्तर साल में भी भारत का लोकतंत्र दलित जातियों को आत्मनिर्भर नहीं बना सका? क्यों वे आज भी स्वतंत्रता महसूस नहीं करते, क्यों वे आज भी कमजोर वर्ग बने हुए हैं?
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक भारत में दलित महिलाओं की संख्या 10 करोड़ से भी अधिक है। आंकड़े बताते हैं कि साल 2018 में देशभर में 2957 दलित महिलाओं का बलात्कार हुआ। ज़्यादा शर्मनाक बात ये है कि इनमें 871 पीड़ित वारदात के वक़्त नाबालिग़ थीं। सरल शब्दों में कहें तो हर रोज़ आठ दलित महिलाओं के साथ देश के किसी ना किसी हिस्से में बलात्कार हो रहा है। एनसीआरबी के मुताबिक दलित समुदाय की सबसे ज़्यादा 526 महिलाएं उत्तर प्रदेश में बलात्कार की शिकार हुईं। वहीं दूसरे नंबर पर आता है मध्य प्रदेश जहां 474 दलित महिलाएं बलात्कार की शिकार बनीं। इसी तरह राजस्थान में 385, महाराष्ट्र में 313 और हरियाणा में 171 दलित महिलाओं को बलात्कार का दंश झेलना पड़ा।
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देशभर में 2016 में दलित हिंसा के 40 हज़ार 743 मामले दर्ज हुए थे जो 2018 में बढ़कर 42 हज़ार 748 हो गए। इससे पता चलता है कि देश में आज़ादी के 70 साल बाद भी, दलितों के शोषण की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि सरकार को चाहिए कि ना सिर्फ वो ऐसी वारदातों पर सख्त कार्रवाई करे, बल्कि ऐसे घिनौने अपराध पर लगाम कसने के लिए ठोस क़दम उठाए। विडंबना है कि संविधान में निहित, नागरिकों को अधिकतम शक्तियां प्रदान होते हुए भी आज भी हम सिर्फ न्याय को तर्कसंगत रूप से लागू होने की परिकल्पना मात्र ही करते रह जाते हैं। भारत के संविधान के ज़रिये ‘हम भारत के लोग’ अपने सुरक्षित वर्तमान और सुनहरे भविष्य को ढूंढते हैं। लेकिन वर्तमान सरकार के अस्तित्व में आने के बाद से संविधान के मूलरूप की अनदेखी लगातार जारी है। भारतीयों के मन में व्याप्त दोहरापन यही है कि वह ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर होने वाली ज़्यादतियों से उद्वेलित दिखते हैं, पर अपने यहां के संस्थानों में आए दिन दलित-आदिवासी या अल्पसंख्यक छात्रों के साथ होने वाली ज़्यादतियों को सहजबोध का हिस्सा मानकर चलते हैं।
मनीषा कांड उतना ही वीभत्स है, जितना निर्भया कांड था। ऐसा ही कुछ हमें बलरामपुर में देखने को मिला, पर निर्भया दलित नहीं थी, सवर्ण थी, इसलिए उसके साथ जनता, डाक्टरों और सरकार का रवैया भी सहयोग का था। परन्तु यह दोनों बच्चियां दलित होने के साथ-साथ गरीब परिवार से भी आती थी। इसलिए उनकी और उनके परिवारों की उपेक्षा की गयी। दलितों के अधिकारों की रक्षा से जुड़ा सरकार का दावा खोखला है। जातीय समीकरणों को चुनौती दी जानी चाहिए। साथ ही नीतियां और फैसले तय करते हुए हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम एक ऐतिहासिक समस्या से टकरा रहे हैं. बाबासाहेब का मानना था कि विभिन्न वर्गों के बीच के अंतर को बराबर करना महत्वपूर्ण है अन्यथा देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना बहुत मुश्किल होगा। उन्होंने धार्मिक, लिंग और जाति समानता पर जोर दिया। लेकिन हाल ही में सामान्य रूप से लोगों में यह भावना देखने में आयी है कि यह सिद्धांत तेजी से बदलते समय में राजनीतिक विभाजन के जरिए अव्यक्त तनाव पैदा कर रहे हैं, जो खुद को कानून और व्यवस्था के क्षरण, आर्थिक मंदी, सांप्रदायिक नाराज़गी और जातिगत विभाजन के रूप में प्रकट करते हैं और राजनीतिक वर्गों ने इसे अपने चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल किया है।
आज भारत का औसत नागरिक यह महसूस कर रहा है कि भारत की संपूर्ण संवैधानिक संरचना गरीब, विनम्र और सर्वहारा समाज के शोषण का जरिया बनाई जा रही है। क्या ऐसे ही न्यू इंडिया की कल्पना मौजूदा सरकार ने की थी? हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या हम अपने संविधान को उसके संकल्पित स्वरूप में अपनाए हुए हैं। यह सिर्फ सरकारों का दायित्व नहीं है बल्कि उन लोगों पर भी निर्भर करता है जो इन सरकारों का चयन करते हैं।
लेखिका: सविता आनंद (सविता आनंद आम आदमी पार्टी की नेता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
डिस्क्लेमर: लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।