Home विमर्श विमर्श : उत्तर प्रदेश चुनाव में सपा-बसपा का ब्राह्मणों पर दांव...

विमर्श : उत्तर प्रदेश चुनाव में सपा-बसपा का ब्राह्मणों पर दांव उन्हें सत्ता तक पहुंचाएगा या गर्त में ले जाएगा ?

क्या ब्राह्मण मतदाता बीएसपी या एसपी के साथ जाएंगे? पारंपरिक तौर पर तो ब्राह्मण मतदाता हमेशा ब्राह्मण वर्चस्व वाली पार्टी के साथ ही रहा है।

645
0
blank
www.theshudra.com

अगले साल यानी 2022 में देश में 7 राज्यों के विधान सभा के चुनाव होने वाले है. इसमें उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश, गुजरात और उत्तराखंड ये राज्य है. इन 7 राज्यों में सबसे महत्वपूर्ण चुनाव उत्तर प्रदेश के माने जा रहे है, क्योंकि 403 विधान सभा की सीटों के साथ वहां 80 लोकसभा सीटें हैं और इसी राज्य में विधान सभा चुनाव से 8 महीने पहले ही चुनाव की तैयारियां सभी राजनीतिक दलों के द्वारा की जा रही है।

BSP का ब्राह्मण सम्मेलन 

इन तैयारियों की शुरुआत बहुजन समाज पार्टी की तरफ से सूबे में ब्राह्मण सम्मेलन को लेकर हुई. शुरू में तो यह ब्राह्मण सम्मेलन था लेकिन बाद में उसका नाम बदलकर प्रबुद्ध वर्ग संगोष्ठी रखा गया. शायद इसलिए कि बसपा का कोर वोटर ब्राह्मण सम्मेलनों से नाराज चल रहा था।

सपा भी ब्राह्मणों को रिझाने में जुटी

बसपा के बाद समाजवादी पार्टी ने भी 22 अगस्त से जिला स्तरीय ब्राह्मण सम्मेलन करने की घोषणा की है. इसके उलट भाजपा ने ओबीसी मतदाताओं को लुभाने के लिए केंद्रीय कैबिनेट विस्तार में ओबीसी के 27 सांसदों को मंत्री बनाया। हालांकि अभी तक उन्हें कार्यभार नहीं दिया गया है, लेकिन ओबीसी को दिखाने के लिए तो उन्होंने ये काम किया है. इसके साथ ही उत्तर प्रदेश की 39 जातियों को ओबीसी में शामिल किया गया है. इतना सब स्पष्ट होने के बाद भी उत्तर प्रदेश के विपक्षी दल खास तौर पर सपा-बसपा भाजपा की इस रणनीति के विरोध में अपनी कोई रणनीति बनाते हुए दिखाई नहीं दे रहे, बल्कि वे प्रदेश के ब्राह्मण मतों पर निर्भर है, लेकिन क्या ब्राह्मण सपा-बसपा को वोट देगा?

सपा-बसपा के साथ जाएंगे ब्राह्मण वोटर ?

बसपा की राजनीति जहां बहुजन से शुरु हुई थी, वह आज एक जाटव जाति की राजनीति में सिमट गई, ठीक वैसे ही सपा की राजनीति जहां समाजवाद से शुरु हुई थी, वह आज एक यादव जाति तक सिमट गई है. इन दोनों जातियों का यूपी की राजनीति में अपना एक वोट शेयर है. उत्तर प्रदेश में जाटवों की संख्या जहां 12% है, वहीं यादव 10% और ब्राह्मण भी लगभग 10% है. अब ये दोनों पार्टियां सोच रही है कि जाटव और यादवों का वोट तो हमें मिलने वाला है, इसमें अगर हम ब्राह्मणों को खुश करके उनके वोट ले तो हम 2022 के विधान सभा में जीत हासिल कर सत्ता बना सकते है, लेकिन ब्राह्मण उनके साथ जाएंगे या नहीं यह एक सवाल ही है।

यूपी की सियासत में ‘ब्राह्मण फैक्टर’

उत्तर प्रदेश के पिछले कुछ विधान सभा चुनावों का अगर हम विश्लेषण करें तो हमें उस सवाल का जवाब मिल सकता है. ब्राह्मण यूपी में प्रभावशाली समुदाय रहा है. उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश के बाद ब्राह्मणों की सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला राज्य यूपी ही है. उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत जो एक ब्राह्मण थे और N. D. तिवारी वह भी ब्राह्मण ही थे. साल 1989 तक उत्तर प्रदेश के साथ सारे देश भर के ब्राह्मण कांग्रेस के साथ ईमानदारी से थे.

1990 के बाद यानी मंडल आंदोलन के बाद यूपी के ब्राह्मणों ने काँग्रेस का साथ छोड़ा और वह भाजपा की तरफ शिफ्ट हुए. उसका कारण यह था की काँग्रेस मंडल आंदोलन को रोकने में कामयाब नहीं रही और भाजपा ने उग्र हिंदुत्व का मुद्दा उठा लिया. ब्राह्मणों को जब ब्राह्मणों के द्वारा ही बनाई गई पार्टी का विकल्प मिल गया, तब वे उसके साथ हो लिये, क्योंकि भाजपा राम जन्म भूमि आंदोलन के साथ उग्र हिंदुत्व पर काम कर रही थी.

1993 से लेकर 2004 तक जब प्रदेश में कोई भी एक दल पूर्ण बहुमत से सरकार नहीं बना पा रहा था, तब भी सूबे के ब्राह्मणों ने भाजपा का साथ दिया. लोकनीति-CSDS के सर्वे के अनुसार ब्राह्मणों का भाजपा को 2004 तक समर्थन था और 2007 के विधान सभा चुनाव में जब बसपा को बड़़ी जीत मिली उस वक्त भी 40% ब्राह्मण भाजपा के पास ही रह गए. और अगले 10 साल में ही यानी 2014 के लोक सभा चुनाव में यह समीकरण फिर एक बार बदल गया.

2007 वाली ‘सोशल इंजीनियरिंग’ में कितना दम ?

उत्तर प्रदेश में 2007 में हुए विधान सभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को बड़ी जीत मिली. पार्टी ने 206 सीटें जीती और बसपा ने बहन मायावती के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत वाली स्थिर सरकार बनाई. 2007 में हुए विधान सभा चुनाव के बारे में कहा जाता है की उस वक्त बसपा को ब्राह्मणों ने समर्थन दिया या ब्राह्मणों के वोट बसपा की तरफ झुक गए जिसकी वजह से बसपा को इतनी बडी जीत मिली, लेकिन यह सच्चाई नहीं है.

डा. वर्नियर्स ने अपनी Phd के लिए लिखी थिसिस The Localisation of Caste Politics in Uttar Pradesh After Mandal & Mandir में इसके बारे में लिखा है. डा.वर्नियर्स का मानना है कि ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है’ या ‘ब्राह्मण शंख बजायेगा, हाथी चलता जायेगा’ जैसे नारों और इन घोषणाओं का ब्राह्मण मतदाताओं पर कोई असर नहीं हुआ और ब्राह्मणों के समर्थन की वजह से यूपी में बसपा की सरकार बनी थी, यह एक झूठ है, क्योंकि 2007 के चुनाव में ब्राह्मणों के मात्र 17% वोट बसपा को मिले.

अपनी थिसीस में डा.वर्नियर्स लिखते है कि 2002 से 2007 के बीच में ही ब्राह्मणों का 11% समर्थन बसपा को मिला था और 2007 में वह 17% हो गया. इसका मतलब है की सर्वजन की नीति अपनाने से या सतीशचंद्र मिश्रा को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाने के बाद ब्राह्मणों का बसपा के लिए समर्थन केवल मात्र 6% बढ़़ गया और वह भी उसी विधान सभा में जहां बसपा ने ब्राह्मण उम्मीदवार को टिकट दिया. उस दौरान भी 40% ब्राह्मणों का समर्थन भाजपा को ही था, यानी ब्राह्मण अपनी सुरक्षा या किसी के डर से वोट नहीं करते, बल्कि अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाने के लिए ही वोट करते है.

इसके उलट देश का मुसलमान अपनी सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए भाजपा को हराने वाले दलों को अपना कीमती वोट देते है. इससे उनका राजनीति में वर्चस्व तो नहीं बनता, बल्कि उनके वोट से सत्ता पाने वाले दल भी उन्हें taken for granted लेते है.

सपा भी ‘ब्राह्मण मोह’ से नहीं निकल पा रही 

बसपा की तरह सपा की भी यही कहानी है. समाजवाद का नारा देकर बनाई गई पार्टी भी आज ब्राह्मणों के मतों को अपने साथ लाने का प्रयास कर रही है. जैसे बसपा एक जाति की पार्टी बनकर रह गई वैसे ही सपा भी 10% यादव जाति की पार्टी बनी हुई है. साल 2012 में हुए विधान सभा चुनाव में सपा को बड़ी जीत मिली थी और सपा के 224 सीटें 29% वोट शेयर के साथ आई थी.

सपा की इस बड़ी जीत के बाद भी भाजपा को ब्राह्मणों का लगभग 40% वोट मिला था. यानी ब्राह्मणों का बड़ा वोट शेयर उस वक्त भी सपा को नहीं मिला था, जब की 1993 से लेकर 2004 तक उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण भाजपा को वोट देते थे और उसके पहले 1989 तक काँग्रेस को। सपा ने जहां पर ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दिया, बस वहीं पर ब्राह्मणों ने सपा को वोट दिया।

बीजेपी के साथ रहा है ब्राह्मण मतदाता 

2017 के चुनाव में भाजपा को 80% ब्राह्मणों का समर्थन मिला. इसके अलावा भाजपा ने नॉन जाटव और नॉन यादव मतदाताओं को जाटव और यादवों के विरोध में भड़का कर उनके वोट हासिल किए. इतना ही नहीं बल्कि मुस्लिमों को एक टिकट भी न देकर 88 मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में 57 सीटों पर जीत हासिल की, जब की मुस्लिमों को सबसे ज्यादा 99 सीटें देने वाली बसपा मात्र 3 सीटें जीत पाई।

अनुसूचित जाति के आरक्षित सीटों का भी यही हाल रहा. 85 आरक्षित सीटों में से केवल मात्र 2 सीटें ही बसपा जीत पाई, जिसका बेस वोट अ.जाति माना जाता है. नॉन जाटव जातियों में जागरण न करने और उन नॉन जाटव जातियों को भाजपा के द्वारा जाटवों के विरोध में भड़काने की वजह से 2017 के चुनाव में बसपा का ये हाल रहा और भाजपा को पासी, वाल्मीकि और खटीक जैसी नॉन जाटव जातियों का 17% वोट मिला.

2007 में 206 और 2012 में 80 सीटें जितने वाली बसपा का 2017 के विधान सभा चुनाव में सफाया हो गया और वह महज 19 सीटें ही जीत पाई. इससे मायावती को दोबारा राज्य सभा का सदस्य बना पाना भी मुश्किल हो गया. वहीं सपा को 2017 के चुनाव में केेेेवल 47 सीटें मिली और वह भी काँग्रेस के साथ गठबंधन के बाद, जिसने 2012 के चुनाव में 403 में से 224 सीटें जीती थीं।

भाजपा ने 2017 में 62% अपने पारंपरिक कथित ऊंची जातियों के वोट शेयर के साथ नॉन यादव जातियां जैसे लोध, कुर्मी, कुशवाहा, कोयरी और अन्य पिछड़े वर्ग के 57% वोट शेयर हासिल किए।

ब्राह्मणों की जगह नॉन-जाटव और नॉन यादव पर हो ज़ोर

पिछले कुछ विधान सभा चुनावों में भाजपा को मिले ब्राह्मण वोटों पर नज़र डालें तो ये पता चलता है कि वह किसी भी परिस्थिति में ब्राह्मणवादी पार्टी को छोड़ना नहीं चाहते. 1996 के यूपी विधान सभा चुनाव में ब्राह्मणों का 71% वोट भाजपा को मिला, वहीं 2002 में 49%, 2007 में 39%, 2012 में 38% और 2017 में 80%.

इसके साथ ही पिछले कुछ लोकसभा चुनावों के भी आंकड़े हम देखते है, 1996 में 54%, 1998 में 81%, 1999 में 74%, 2004 में 59%, 2014 में 72% और 2019 में 82% ब्राह्मण वोट भाजपा को मिला है. इसके अलावा यूपी में ब्राह्मण विधायकों की संख्या भी लगभग एक जैसे ही रही है. 2002 में 41 ब्राह्मण विधायक, 2007 में 56, 2012 और 2017 में 47-47 विधायक ब्राह्मणों के रहे है.

यह बात अलग है की मंडल आंदोलन से पहले यूपी में 81 ब्राह्मण विधायक थे और उसके बाद यह संख्या घटकर आज 47 पर आ गई है. यूपी में ब्राह्मणों को कमजोर करने का काम मंडल आंदोलन में मान्यवर कांशीराम और मुलायम सिंह यादव इनके द्वारा लगातार होता रहा.

यानी सत्ता चाहे किसी भी दल की आये, ब्राह्मणों का सत्ता में स्थान निश्चित होता है और खास तौर पर ब्राह्मणवादी पार्टियों के द्वारा। इस सारे विश्लेषण को देखते हुए सपा-बसपा को ब्राह्मण वोटरों को अपने साथ जोड़ने से ज्यादा नॉन जाटव और नॉन यादव वोटरों को जोड़ने का काम करना चाहिए, लेकिन क्या वे ऐसा करेंगे?

blank (कमलाकांत काले MNTv के मुख्य सम्पादक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

  telegram-follow   joinwhatsapp     YouTube-Subscribe

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here