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किसका बिहार ? क्या मिट्टी तेल की जगह पेट्रोल से रोशन होगा ‘चिराग’ ?

चुनाव प्रचार करते हुए चिराग पासवान (फोटो- ट्विटर/चिराग पासवान)

बिहार में अभी सबके मन में यही सवाल है कि आखिर चिराग पासवान (लोजपा) की अकेले 130 से ज्यादा सीटों पर लड़ने के पीछे की असली राजनीति है क्या? क्या बीजेपी ने चिराग पासवान को नीतीश कुमार को कमजोर करने के लिए मैदान में उतारा है या कोई और ही बात है? क्या वे इतनी सीटें जीत सकेंगे, जो बीजेपी को नीतीश कुमार के बिना सत्ता दिला सके? बीजेपी के लिए चिराग के एकतरफा प्रेम के पीछे की क्या वजह है? वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव जीत लेने के बाद ही चिराग को नीतीश कुमार में कमियां क्यों दिखने लगी?
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दरअसल, पार्टी को चलाने व कैडर को जिंदा रखने के लिए विधानसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटों पर हर दल की लड़ने की इच्छा होती है। चिराग की एनडीए से पहली मांग थी कि उनकी पार्टी बिहार बेस्ड है और उनके 07 एमपी (6 लोकसभा और 1 राज्यसभा) हैं, इसलिए वे कम-से-कम 42 विधानसभा सीट चाहते हैं। चूंकि, 2015 में लोजपा एनडीए गठबंधन में 42 सीटों पर लड़कर मात्र 2 सीटें जीत पायी थी। ऐसे में इस बार जदयू के एनडीए का हिस्सा बनते ही उनकी 42 सीटों पर लड़ने योजना पर ग्रहण लग गया। चिराग के लिए नीतीश कुमार से चिढ़ की पहली वजह यही बनी।
(फोटो- ट्विटर/चिराग पासवान)
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हालांकि, एनडीए गठबंधन में 25 सीटों पर लड़ने की स्थिति में भी लोजपा का स्ट्राइक रेट अभी के 130 से ज्यादा सीटों पर लड़ने से बेहतर जरूर रहता। फिर भी चिराग ने यह रिस्क क्यों लिया? क्योंकि उनके पास अभी खोने के लिए मात्र दो सीटें हैं और पाने के लिए बिहार की राजनीतिक जमीन। फिर भी इतना तो तय है कि लोजपा इतनी सीटें तो नहीं ही जीत सकेगी, जिससे कि नीतीश कुमार के बिना बीजेपी के लिए सत्ता की राह आसान हो। कहीं, नीतीश कुमार से राजनीतिक बदला लेने के लिए मोदी-मोदी जप कर चिराग, तेजस्वी यादव के लिए जीत का मैदान तो नहीं तैयार कर रहे?
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चूंकि, 2015 में बीजेपी और जदयू आमने-सामने लड़ी थी, उसमें जिन सीटों पर जदयू जीती थी, उन पर इस बार जदयू का और जिन पर बीजेपी जीती थी, उन पर बीजेपी का दावा बना। ऐसे में दर्जनों ऐसे भाजपा नेता बेटिकट हो गये, जो खुद को इस बार भी टिकट का प्रबल दावेदार समझ रहे थे। चिराग पासवान ने मौके की नजाकत को समझा और उन सभी को इस नाम पर अपनी टिकट ऑफर कर दी कि वे खुद तो मोदी के हनुमान हैं। रेस में किसी और का खिलाया-पिलाया घोड़ा मिल जाए, तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। लेकिन, लॉन्ग टर्म के लिए यह चिराग और रेस के उन घोड़ों के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकता है। खैर, राजनीति में इतना रिस्क तो बनता है।
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रामविलास जी भी बीजेपी के साथ रहे, पर वे अपना दीया हमेशा अपनी मिट्टी के तेल से ही जलाते रहे थे, लेकिन इस बार चिराग ने उधारी के पेट्रोल के दम पर अपने चिराग को रोशन करने का सपना संजोया है। चिराग ने इस बार अपनी पार्टी का टिकट सेल की तर्ज पर बांटा है। सेल-सेल-सेल, जो भी नेता नीतीश कुमार से नाराज हैं और उनकी पार्टी को नुकसान पहुंचा सकते हैं, तो आइए और टिकट ले जाइए। ऐसे में मोदी का नाम लेने के अलावा चिराग के पास कोई और दूसरा चारा भी नहीं बचा है। वही एक नाम है, जो उनके उम्मीदवार को जमानत जब्त होने से बचा सकता है। क्योंकि, रामविलास जी की अनुपस्थिति में पहली बार चिराग चुनावी समर में हैं।
(फोटो- ट्विटर/चिराग पासवान)
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रामविलास जी को पासवान जाति के अलावा हमेशा पिछड़ों का भरपूर स्नेह मिलता रहा। यहां तक कि उनके परिवारवादी बनने के बाद भी, क्योंकि मंडल कमीशन के लागू होने में उनका अहम रोल था। वहीं, चिराग को इस बार पासवान जाति के अलावा वे सवर्ण प्यार कर रहे हैं, जो नीतीश कुमार से नाराज हैं। लेकिन क्या ये सवर्ण उन्हें तब भी प्यार करेंगे, जब चिराग राजद के साथ चले जाएं या बीजेपी के खिलाफ हो जाएं?
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यहां सवाल यह भी है कि लोजपा यदि सिर्फ मिशन जदयू हराओ पर थी, तो उसने राघोपुर, रोसड़ा, गोविंदगंज, भागलपुर और लालगंज में भाजपा के खिलाफ भी उम्मीदवार क्यों दिये? इनमें से दो जगह तो इनके जीते हुए विधायक थे, लेकिन अन्य तीन जगह पर मोदी के इस हनुमान की ऐसी क्या मजबूरी रही कि मोदी के उम्मीदवार के खिलाफ अपने उम्मीदवार देने पड़े? ये पांचों उम्मीदवार कहीं-न-कहीं बीजेपी का ही खेल खराब कर रहे हैं। भागलपुर के उम्मीदवार राजेश वर्मा तो चुनाव की घोषणा के कुछ दिनों पहले ही भाजपा छोड़ कर लोजपा में शामिल हुए थे। ऐसी क्या मजबूरी रही कि इनलोगों को लोजपा टिकट से मना नहीं कर पायी? क्या इनलोगों से मोटा चंदा ले लिया गया था?
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कुल मिलाकर देखें, तो चिराग इस बार चुनावी समर में जुआ ही खेल रहे हैं। इस जुए में उनको जनता का कितना साथ मिलता है, उसके लिए तो 10 नम्वबर का ही इंतजार करना होगा। फिलहाल भीड़ तो सबकी रैली में जुट रही है। बाकी त जे है से हैइये है।
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लेखक – विवेकानंद, पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक
(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
       
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