दलित बनाम कुंठित ! आउटलुक पत्रिका ने पचास लोगों की एक लिस्ट जारी की. वैसे तो पचास जैसी कोई सीमा होनी नहीं चाहिये. हज़ारों लोग है जो दिन रात लगे हुये हैं , उन सबको इस लिस्ट में होना चाहिये, लेकिन पत्र पत्रिकाओं की अपनी एक सीमा होती है, यह मीडिया के जानकर समझते हैं।
रही बात लिस्ट की तो हम सब यह भी जानते हैं कि विभिन्न संस्थाएँ और मीडिया हाउस समय समय पर अलग अलग क्षेत्रों से जुड़े लोगों की ऐसी लिस्ट जारी करते हैं , इसमें घबराने की कोई बात नहीं, न ही जिनका नाम आ गया, उनको इतराने की आवश्यकता है, क्योंकि इस लिस्ट में नाम लिख दिये जाने से हमारे संघर्ष कम नहीं होने वाले हैं. ज़िंदगी पहले जैसी ही विकट विकराल बनी रहने वाली है. ये लिस्टें महज़ टोटके भर हैं,हम समझते हैं.जिनका नाम इस लिस्ट में नहीं है, उनको कुंठित होने की ज़रूरत नहीं हैं, काम करते रहिये, किसी न किसी लिस्ट में नाम आ जायेगा, आज नहीं तो कल।
एक मोटिवेशनल स्पीकरनुमा किसी सज्जन का विलाप यू ट्यूब पर सुना मैने, वे इतने भावुक थे कि उन्होंने खुद से आगे हो कर प्रस्ताव दिया कि अगर घटिया से घटिया बुद्धिस्ट की कोई लिस्ट बनें तो भी वे उसमें अपना नाम सबसे नीचे देखने को तैयार है. मुझे उनका यह त्याग पसंद आया. उनका समर्पण अद्भुत है. मुझे ऐसे लोग पसंद है जो अपनी क्षमता और वास्तविकता को पहचानते हैं. कोई उनको कहे, इससे पहले ही वे खुद को एक्सपलोर कर देते हैं।
कुछ लोगों को इस बात से अच्छी ख़ासी दिक़्क़त हुई है कि पचास दलित शब्द क्यों इस्तेमाल किया गया है ? यह सवर्ण मीडिया की साज़िश है ! ये कोंसपरेंसी थियरी वाले लोग है, जो हर बात में साज़िश के सूत्र खोज लेने में माहिर हो चुके हैं .यह प्रवृति अब लाइलाज हो चुकी है, उनको तो क्या ही कहा जाये, लेकिन ऐसे बुद्धिजीवी भी हैं जो कह रहे हैं कि दलित शब्द तो गाली है , ग़नीमत है कि वो यह नहीं बता रहे हैं कि एक अंतर्रराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त अकादमिक और सांस्कृतिक शब्द को गाली किसने बनाया ? अच्छा होता वे बता पाते.
कुछ का सुझाव है कि पचास बहुजन क्यों नहीं ? कुछ को लगता है कि पचास अनुसूचित जाति क्यों नहीं ? एक दो का कहना है कि पचास मूलनिवासी क्यों नहीं ? तो कुछ का सवाल है कि पचास अनार्य अथवा बुद्धिस्ट क्यों नहीं ? सवाल प्यारे हैं और एकदम जायज़ भी? जो जिस शब्द का भक्त है अथवा जिस शब्द से बंधा है , उसे अपने वाला शब्द नज़र नहीं आता है तो उसका भड़कना स्वाभाविक है.
शब्दों की अपनी दासता होती है,यह ज़ेहन को कसकर पकड़ लेती है.फिर एक एक शब्द पर बहस होती है.पता ही नहीं चलता कि खाल में से बाल निकाल रहे हैं या बाल की खाल. तो बंधुओं लगे रहो. यह भी कुछ कम बड़ा काम नहीं है, किसी संत कवि ने कहा है -“ तू शब्दों का दास रे जोगी, तेरा क्या विश्वास रे जोगी ?”
मुझे किसी शब्द से तब तक कोई दिक़्क़त नहीं रही है,जब तक वह गाली न हो या कि असंसदीय न हो .मुझे दलित, बहुजन, मूलवासी, अनुसूचित,अर्जक,श्रमण आदि इत्यादि किसी भी शब्द से कोई परहेज़ नहीं हैं.मैं अलग अलग संदर्भ में इन सब शब्दों का उपयोग अपने लेखन व भाषणों में करते रहता हूँ, बेझिझक ,आराम से, बिना यह सोचे कि सामने बैठा कुंठित समाज का व्यक्ति क्या सोचेगा. पहली बात तो वो सोचेगा ही नहीं, उसको सोचना तो है ही नहीं, उसे तो उधार मिले ज्ञान के आधार पर गाली भर देना है,जो वह हर हाल में देगा ही देगा.
मैं जानता हूँ कि अनुसूचित जाति एक प्रशासनिक शब्द है, दलित एक सशक्त प्रतिरोध का सांस्कृतिक , साहित्यक व अकादमिक शब्द है. बहुजन राजनीतिक शब्दावली है तो मूलनिवासी क़बिलाई नस्लीय अवधारणात्मक शब्दावली है , सबका अपनी अपनी जगह उपयोग है. किसी से किसी का कोई विरोध नहीं है . पर शब्दों के दास भिड़े हुये हैं . उनका क्या किया जाये ?
अब बात आउटलुक सूची की तो अगर यह किसी को ठीक नहीं लग रही है तो आराम से विरोध कीजिए,किसी व्यक्ति से आपको एलर्जी है तो उसका नाम लेकर विरोध कीजिये, घुमा घुमा कर क्यों कहते हैं . इससे बात बात नहीं रहती,जलेबी बन जाती है. इससे बढ़िया कि सीधे कह दीजिये कि चूँकि इस लिस्ट में मेरा या मैं जिससे जुड़ा हूँ , उसका नाम नहीं है और मेरे विरोधी का नाम है ,इसलिए मैं इस लिस्ट का तब तक विरोध करता हूँ ,जब तक कि उस एक को निकाल कर मेरा नाम इसमें शामिल नहीं कर लिया जाता हैं.
अगर किसी भी साथी को मेरे नाम से दिक़्क़त हो तो मैं आउटलुक टीम से आग्रह करुंगा कि वे मुझे अपनी पचास लोगों की लिस्ट से हटा दें और जो ज़रूरतमंद है,उसे शामिल कर लें.वैसे एक सुझाव और भी है इस लिस्ट की निरंतरता में पचास बहुजन, पचास अनुसूचित, पचास मूलनिवासी और पचास बुद्धिस् टअसरदार शख़्सियतों की जंबो सूची और जारी कर दें और इस ढाई सौ तीन सौ की सूची में भी वे मुझे बिल्कुल भी न रखें.
साथियों , इन सूचियों से क्या होता है? सूचियाँ बनती रहती है, न सत्ता प्रतिष्ठान की काली सूची से हम डरें है और न ही किन्ही प्रशंसा सूचियों से फूल कर कुप्पा हुये हैं. इन टोटकों की हक़ीक़त हम ख़ूब ख़ूब समझते हैं.हम जानते हैं कि ऐसी तमाम सूचियों उन लोगों से पूछ कर नहीं बनाई जाती है,जिनका नाम उसमें होता है और न ही ऐसी सूची में शामिल होने की कोई लौबिंग की जाती है.
दिक़्क़त सूची की नहीं है,उसमें शामिल और नहीं शामिल लोगों के नामों की है.भले ही यह लड़ाई दलित शब्द को ढाल बना कर या आड़ ली जा कर लड़ी जा रही है,लेकिन हक़ीक़त में यह लड़ाई दलित समाज की नहीं एक नवोदित कुंठित समाज की है जो किसी अन्य की स्वीकार नहीं कर सकता,अपने अलावा किसी के काम की प्रशंसा नहीं सुन सकता,जो यह कहने का साहस तो नहीं रखता कि मेरा नाम क्यों नहीं है ? वह सीधे कहने के बजाय यह कहता दिखेगा कि इसमें मेरी जाति क्यों नहीं? मेरा इलाक़ा क्यों नहीं ? इसमें मेरे वाला शब्द क्यों नहीं ? मैं जिसकी भक्ति करता हूँ,वो वाला नेता क्यों नहीं ? ब्ला ब्ला ब्ला…
यार यह लड़ाई भी कोई लड़ाई है भला ? मेरा विनम्र सुझाव है कि आउटलुक इस सूची को संशोधित कर दें और उसमें से सिर्फ़ मेरा नाम निकाल कर उन सबका का शामिल कर दे और जिस जिस ने अब तक बधाई नहीं दी है, वे अपनी अपनी बधाई स्थगित कर दें और जिस जिस ने भी दे दी है,वो अपनी अपनी बधाई वापस खींच ले .बस इस कोरोना काल में शांति से जीने की मोहलत दे दें . बड़ी कृपा होगी।
(भंवर मेघवंशी की फेसबुक वॉल से साभार। भंवर मेघवंशी शून्यकाल के संपादक और मशहूर लेखक हैं। उनकी किताब ‘I Could Not Be Hindu’ काफी पॉपुलर है।)