मूकनायक… यानी मूक लोगों का नायक… Hero of the Dumb… आज से 102 साल पहले बाबा साहब डॉ अंबेडकर ने इसी नाम से अपना पहला अखबार निकाला था। 31 जनवरी 1920 को मराठी में पाक्षिक यानी 15 दिन में निकलने वाले अखबार की 102वीं वर्षगांठ की आप सबको ढेरों बधाई।
‘वंचितों का अपना मीडिया होना चाहिए’
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का मानना था कि दलितों को जागरूक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए उनका अपना खुद का मीडिया होना बहुत ज़रूरी है। द शूद्र के मास्टहेड पर भी हमने उनकी वही बात लिखी है।
बाबा साहब मनुवादी मीडिया की सच्चाई अच्छे से जानते थे। इसलिए ‘मूकनायक’ के पहले संपादकीय में बाबा साहब ने इसके प्रकाशन के औचित्य के बारे में लिखा था, ‘बहिष्कृत लोगों पर हो रहे और भविष्य में होनेवाले अन्याय के उपाय सोचकर उनकी भावी उन्नति और उनके मार्ग के सच्चे स्वरूप की चर्चा करने के लिए वर्तमान समाचार पत्रों में जगह नहीं है।ज्यादातर समाचार पत्र खास जातियों के हित साधन करने वाले हैं। इतना ही नहीं कभी कभी वे दूसरी जाति के लोगों के खिलाफ भी लिखते हैं।’
बाबा साहब ने मूकनायक के जरिए ना सिर्फ अछूतों में चेतना जगाई बल्कि दमदार तरीके से बहुजन समाज के हितों की पैरवी भी की। 28 फरवरी 1920 को प्रकाशित ‘मूकनायक’ के तीसरे अंक में डॉ आंबेडकर ने ‘यह स्वराज्य नहीं, हमारे ऊपर राज्य है’ शीर्षक संपादकीय में साफ–साफ कहा था कि स्वराज्य मिले तो उसमें अछूतों का भी हिस्सा हो।
‘शानदार पत्रकार थे डॉ आंबेडकर’
बाबा साहब डॉ आंबेडकर ने बतौर पत्रकार भी बेहद शानदार काम किया है। उन्होंने अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिए भी अपने आंदोलन को ना सिर्फ़ धार दी बल्कि पूरी दुनिया को भारत के अछूतों की दयनीय हालत के बारे में बताया। आज हमारे पास टीवी, वेबसाइट और सोशल मीडिया जैसे माध्यम हैं लेकिन बाबा साहब के दौर में अख़बार से बड़ा कोई मीडिया नहीं होता था। लेकिन आज की तरह ही उस वक़्त भी मीडिया पर ब्राह्मण-बनिया जातियों का ही वर्चस्व था। आज बीजेपी मीडिया को कंट्रोल करती है तो उस वक्त कांग्रेस ब्रिटिश भारत के मीडिया को कंट्रोल करती थी।
कांग्रेसी मीडिया (बाबा साहब कांग्रेसी मीडिया ही कहते थे) में अछूतों के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी। अछूतों के मुद्दों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन बाबा साहब ये बात अच्छे से समझते थे कि अगर अपनी बात सत्ता तक पहुँचानी है तो मीडिया से बड़ा कोई हथियार नहीं। इसलिए उन्होंने ख़ुद ही लोक भाषाओं में अपने अख़बार और पत्र-पत्रिकाएं निकाली। मूकनायक साप्ताहिक (1920), मराठी में बहिष्कृत भारत (1924), समता (1928), जनता (1930) और प्रबुद्ध भारत (1956) जैसे पत्र-पत्रिकाएं निकाली। यानी अपनी ज़िंदगी के आख़िरी समय तक वो पत्रकारिता से जुड़े रहे। अपनी 65 साल की ज़िंदगी में उन्होंने 36 साल तक पत्रकारिता की।
बाबा साहब के पत्रकारीय जीवन पर काम करने वाले गंगाधर पंतवाने ने लिखा है ‘मूकनायक डॉ आंबेडकर द्वारा स्थापित पहली पत्रिका थी।’ जिस समय ये पत्रिका छपी थी उस समय बाल गंगाधर तिलक केसरी नाम की पत्रिका निकालते थे। बाबा साहब ने उन्हें पैसे लेकर मूकनायक के बारे में एक विज्ञापन छापने के लिए प्रस्ताव भेजा लेकिन तिलक ने क़ीमत अदा करने पर भी मूकनायक का विज्ञापन नहीं छापा। इससे आप उस समय की मीडिया के जातिवादी चरित्र का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
वर्ण व्यवस्था पर करारा वार
मूकनायक के संस्थापक संपादक महार जाति से ही आने वाले पीएन भाटकर साहब थे लेकिन बाबा साहब ने ही मूकनायक के 13 संपादकीय लेख लिखे। 31 जनवरी 1920 को मूकनायक के पहले संपादकीय में बाबा साहब ने लिखा था ‘हिंदू धर्म की चतुर्ण वर्ण व्यवस्था एक चार मंज़िला इमारत की तरह है जिसमें आने-जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं है। जो जिस मंज़िल पर पैदा हुआ है, उसी मंज़िल पर मरेगा’
मीडिया को डॉ आंबेडकर कैसे देखते थे, उसे समझने के लिए आपको 18 जनवरी 1943 को पूना के गोखले मेमोरियल हॉल में महादेव गोविंद रानाडे की 101वीं जयंती पर उनका व्याख्यान पढ़ना होगा। उस व्याख्यान का शिर्षक था ‘रानाडे, गांधी और जिन्ना’। उन्होंने कहा ‘मेरी निंदा कांग्रेसी समाचार पत्रों द्वारा की जाती है, मैं कांग्रेसी समाचार पत्रों को भलीभाँति जानता हूँ। मैं उनकी आलोचना को कोई महत्व नहीं देता। उन्होंने कभी मेरे तर्कों का खंडन नहीं किया। वे तो मेरे हर काम की आलोचना करते हैं और बस निंदा करना जानते हैं। वे मेरी हर बात की ग़लत सूचना देते हैं, उसे ग़लत तरीक़े से पेश करते हैं और उसका ग़लत अर्थ निकालते हैं। मेरे किसी भी काम से कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाएं खुश नहीं होते। अगर मैं ये कहूँ कि मेरे लिए कांग्रेसी मीडिया का ये व्यवहार अछूतों के प्रति हिंदुओं के घृणा-भाव की अभिव्यक्ति है तो ग़लत नहीं होगा। उनका ये द्वेष मेरे प्रति व्यक्तिगत हो गया है। ये इस तथ्य से साफ़ हो जाता है कि कांग्रेसी मीडिया को तब भी कष्ट होता है जब मैं उस जिन्ना की आलोचना करता हूँ जो पिछले कई सालों से कांग्रेस की आलोचना का विषय और लक्ष्य रहा है। कांग्रेसी पत्र मुझपे गालियों की बौछार करते हैं। वो कितनी भी गंदी या तीखी क्यों ना हों, मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना है। ’
आगे बाबा साहब कहते हैं ‘मैं मूर्ति पूजक नहीं हूँ, मैं मूर्ति भंजक हूँ। मेरा आग्रह है कि यदि मैं श्री गांधी और श्री जिन्ना से घृणा करता हूँ तो उसका कारण ये है कि मैं भारत से अधिक प्रेम करता हूँ। ये एक राष्ट्रवादी की सच्ची निष्ठा है। मुझे आशा है कि मेरे देशवासी किसी ना किसी दिन यह सीख लेंगे कि देश व्यक्ति से कहीं महान होता है। श्री गांधी या जिन्ना की पूजा और भारत की सेवा में आकाश और पाताल का फ़र्क़ है। और वे परस्पर विरोधी भी हो सकते हैं।’ (Writing and Speeches of Dr Ambedkar, हिंदी, खंड-1, पेज-250-251, English, Part-1, Page No. 207-209)
‘संपूर्ण मीडिया ब्राह्मणों के क़ब्ज़े में है’
अपने लेख ‘विदेशियों से आग्रह’ में डॉ आंबेडकर ने अछूतों के जीवन और आंदोलन में प्रेस की भूमिका और उसकी सीमाओं को रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा ‘भारत के बाहर के लोग विश्वास करते हैं कि कांग्रेस ही एकमात्र संस्था है जो भारत का प्रतिनिधित्व करती है। यहाँ तक की अस्पृश्यों का प्रतिनिधित्व भी कांग्रेस करती है। इसका कारण ये है कि अछूतों के पास अपना कोई साधन नहीं है जिससे वो कांग्रेस के मुक़ाबले में अपना दावा जता सके। अछूतों की इस कमजोरी के और भी कई अन्य कारण हैं। अछूतों के पास अपना प्रेस नहीं है, कांग्रेस का प्रेस उनके लिए बंद है, कांग्रेसी मीडिया ने अछूतों को रत्ती भर भी जगह ना देने की क़सम खा रखी है। अछूत अपना प्रेस स्थापित नहीं कर सकते। ये साफ़ है कि कोई भी समाचार पत्र बिना विज्ञापन राशि के नहीं चल सकता है और पैसा केवल व्यवसायिक विज्ञापनों से ही आता है। चाहे छोटे व्यवसायी हो या बड़े व्यवसायी हो, वो सभी कांग्रेस से जुड़े हुए हैं और ग़ैर कांग्रेसी संस्था का पक्ष नहीं ले सकते। भारत की समाचार एजेंसी, एसोसिएटेड प्रेस के स्टाफ़ संपूर्ण रूप से मद्रासी ब्राह्मणों से भरा पड़ा है। वास्तव में भारत का संपूर्ण प्रेस ही उनकी मुट्ठी में है और वे कांग्रेसियों के पिट्ठू हैं जो कांग्रेस के खिलाफ किसी समाचार को नहीं छाप सकता। यही कारण है प्रेस अछूतों की पहुँच से बाहर है। लेकिन किसी हद तक ख़ुद अछूतों में प्रचार ना करने की प्रवृत्ति का ना होना भी एक कारण है। प्रचार की प्रवृत्ति का ना होने का एक कारण देशभक्ति भी है कि कहीं ऐसी कोई बात ना हो जाए जिससे देश की प्रतिष्ठा दांव पर लग जाए।’ (Writing and Speeches of Dr Ambedkar, हिंदी- खंड-16, पेज-210 | English Volume-9, Page No. 200)
बहुजनों ने नहीं खड़ा किया अपना नेशनल बहुजन मीडिया
बाबा साहब के ये विचार आज भी प्रासंगिक है। बहुजन राजनीति से उपजे बहुजन नेताओं ने सत्ता तक पहुँचने को ज़रूर संभव कर दिखाया लेकिन उन्होंने प्रचार के तंत्र विकसित करने और अपना नेशनल बहुजन मीडिया खड़ा करने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। चाहे लालू यादव हों या मायावती, किसी ने मुख्यधारा का मीडिया खड़ा करने की कोशिश नहीं की। ये प्रचार तंत्र ही है कि लालू के राज को मीडिया ने जंगलराज साबित कर दिया और बहुजन नायकों के सम्मान में बने पार्कों और स्मारकों को पैसे के बर्बादी घोषित कर दिया। ये प्रचार तंत्र ही जिसने 3000 करोड़ के स्टैच्यू ऑफ युनिटी को विकास का पैमाना बताया। बहुजन पत्रिकाएँ और छोटे-मोटे यूट्यूब चैनल ज़रूर इस कमी को पूरा करने की कोशिश में लगे हैं लेकिन बहुजन नेता और कार्यकर्ता ही इन वैकल्पिक प्लेटफ़ॉर्म पर आने से बचते हैं। उन्हें बाइट ANI कोे देनी होती है, इंटरव्यू आजतक और एबीपी का माइक देख कर देते हैं। मज़ेदार बात ये भी कि ऐसे तमाम बहुजन नेता और एक्टिविस्ट मनुवादी मीडिया की खूब आलोचना भी करते हैं लेकिन जाते भी उन्हीं के पास है। बहुजन प्लेटफॉर्म के प्रचार तक करने में इनकी दिलचस्पी नहीं है। एक ट्वीट भी रिट्वीट करना ज़रूरी नहीं समझते।
कलकत्ता के पत्रकारों को दिलाया हक़
1946 में जब डॉ आंबेडकर श्रम मंत्री थी, उस समय कलकत्ता के प्रेस कर्मचारियों ने हड़ताल की थी। बाबा साहब ने ना सिर्फ़ उनके काम के घंटे कम कराए बल्कि उन्हें कई तरह की अन्य सुविधाएँ भी दिलाईं। और ज़्यादा पढ़ने के लिए देखें (Writing and Speeches of Dr Ambedkar, हिंदी- खंड-18, पेज-331 || English Volume-10, Page No. 365 )
वंचितों का अपना मीडिया होना बहुत ज़रूरी है
1945 में ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने ‘पिपुल्स हेराल्ड’ नाम से अपना साप्ताहिक मुखपत्र निकाला और उसके उद्घाटन में डॉ आंबेडकर को चीफ़ गेस्ट बुलाया। उसके उद्घाटन भाषण में डॉ आंबेडकर ने कहा था ‘आधुनिक ‘प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में अच्छी सरकारों के लिए समाचार पत्र मूल आधार है। इसलिए भारत की अनुसूचित जातियों के दर्द और दुर्दशा, जिसे हम ख़त्म करने का प्रयास कर रहे हैं, जब तक सफलता नहीं मिल सकती जब तक 8 करोड़ अछूतों को राजनीतिक तौर पर प्रशिक्षित ना कर लें। यदि विभिन्न विधानसभाओं के विधायकों के व्यवहार की रिपोर्टिंग करते हुए समाचार पत्र ये लिखें ये ऐसा क्यों है? क्यों नहीं है? ये सवाल अगर पूछे तो निश्चित तौर पर विधायकों के व्यवहार में तब्दीली आ सकती है और हमारे लोगों की जो दुर्दशा है वो ख़त्म हो सकती है। इसलिए इस समाचार पत्र को मैं ऐसे साधन के रूप में देख रहा हूँ जो वैसे लोगों का भी शुद्धिकरण कर सकता है जो गलती से अपने राजनीतिक जीवन में रास्ता भटक गए हैं।’
1937 के विधानसभा चुनावों में मराठी समाचार पत्रों की भूमिका का हवाला देते हुए उन्होंने कहा ‘समाचार पत्र ना केवल मतदाताओं को प्रशिक्षित करते हैं बल्कि ये भी सुनिश्चित करते हैं कि जिसे उन्होंने अपने मत से चुना है वो उनके साथ खड़े हों। वो अपना कर्तव्य ठीक से पालन कर रहे हैं या नहीं कर रहे है? वो किसी से दुर्व्यवहार तो नहीं कर रहे?’ (Writing and Speeches of Dr Ambedkar, English, Volume-17, Part-3, Page No. 348-349)
बहुजनों को समझना चाहिए, नेशनल बहुजन मीडिया बहुत ज़रूरी है
आज जब मनुवादी मीडिया सत्ता के तलवे चाट रहा है तो बाबा साहब की ये बातें और भी ज़्यादा ज़रूरी हो जाती हैं। उस समय कांग्रेसी मीडिया था तो आज गोदी मीडिया है। कुल मिलाकर खेल चुनिंदा जातियों के लोग ही खेल रहे हैं। ऑक्सफेम-न्यूज़लॉन्ड्री की हालिया रिपोर्ट में साबित हुआ कि मीडिया के 121 निर्णायक पदों में से 106 सवर्णों के क़ब्ज़े में है। दलित पत्रकार आपको ढूँढे नहीं मिलेंगे। ऐसे में ज़रूरी है कि बहुजन समाज अपना ख़ुद का राष्ट्रीय बहुजन मीडिया खड़ा करने के लिए आगे आए।
इन दिनों किसान आंदोलन को लेकर मनुवादी मीडिया जिस तरह की कवरेज कर रहा है, उसने लोकतंत्र के तथाकथित चौथे खंभे को और भी गर्त में पहुंचा दिया है। लोगों में एक तरफ गोदी मीडिया के खिलाफ गुस्सा तो वहीं दूसरी तरफ छोटे-छोटे यूट्यूब चैनल और पोर्टल्स से इन लोगों की उम्मीदें भी बढ़ गई हैं। गाजीपुर बॉर्डर पर एक बुजुर्ग ने द शूद्र की टीम से हाथ जोड़कर कहा था ‘सिर पर कफ़न बांध कर चल रहे। बाबू जी ! मीडिया बिक गईं है, आप हमारी ये खबर ज़रूर दिखा देना।‘
ऐसे दौर में जब पत्रकारिता पतनशील दौर के आखिरी पायदान पर है… आंबेडकरवादी पत्रकारिता और भी प्रासांगिक हो जाती है। ब्राह्मण-बनिया जैसी जातियों के कब्जे में फंसा मीडिया बिक चुका है और हक की आवाज़ सत्ता के गलियारों से दबाई जा रही है। ऐसे में बाबा साहब डॉ आंबेडकर की पत्रकारिता हमारे लिए मार्गदर्शक का काम कर सकती है कि कैसे जुल्मतों के दौैर में भी अपनी आवाज़ को बुलंद करना है। गर्त में जाती भारतीय मीडिया की साख को सिर्फ आंबेडकरवादी पत्रकारिता ही बचा सकती है।