10 मार्च 1897 को भारत की पहली महिला शिक्षिका माता सावित्रीबाई फुले का परिनिर्वाण हुआ था। आज के दिन क्रांतिज्योति सावित्रीबाई हमें अलविदा कह गई थीं लेकिन जाते-जाते उन्होंने मानवता की ऐसी मिसाल पेश की जो हमें हमेशा प्रेरित करती रहेगी।
कैसे हुआ था माता सावित्रीबाई का परिनिर्वाण
दरअसल 1897 में पुणे में ज़बरदस्त प्लेग फैला था। हर तरफ बीमार लोग थे और सैकड़ों-हज़ारों लोगों की मौत हो रही थी। पिछले साल जिस तरह से कोरोना ने कहर बरपाया, उसी तरह प्लेग भी एक महामारी बनकर लोगों पर टूटा था। ऐसे बुरे वक्त में माता सावित्रीबाई फुले लोगों की मदद के लिए आगे आईं। माता सावित्रीबाई फुले ने अपने बेटे यशवंत के साथ मिलकर पुणे में प्लेग के मरीजों के लिए एक क्लिनिक खोला और दिन-रात मरीजों की सेवा करने में लग गईं।
जब बीमार बच्चे को पीठ पर लादकर क्लिनिक पहुंची
प्लेग से पुणे के लोेगों का बुरा हाल था। इसी दौरान उन्हें पता चला कि पुणे के एक इलाके में पांडुरंग नाम के शख्स का बेटा बहुत बीमार है। खबर मिलते ही माता सावित्रीबाई फुले दौड़ पड़ी और पांडुरंग के बेटे को अपनी पीठ पर लादकर क्लिनिक लाईं। उस वक्त संक्रमण से बचाने के लिए मास्क और PPE किट नहीं हुआ करती थीं लेकिन फिर भी माता सावित्रीबाई फुले ने अपनी जोखिम में डाल दी। बच्चे को लाने के दौरान माता सावित्रीबाई फुले खुद प्लेग से संक्रमित हो गईं और इस बीमारी से लड़ते हुए उन्होंने 10 मार्च 1897 को रात करीब 9 बजे उन्होंने परिनिर्वाण प्राप्त किया।
अपनी आखिरी सांस तक माता सावित्रीबाई फुले ने मानव सेवा को अपना परम ध्येय बनाए रखा। ऐसी त्याग की मूर्ति माता सावित्रीबाई फुले को शत-शत नमन